Unbelievable Journey of Guru Nanak Dev Ji

जान कर आश्चर्य होगा कि गुरु महाराज ने सारी दुनिया को पैरों से नापा और हर जगह वे अपने आध्यात्मिक विचारों का प्रचार करते, लोगों को धर्म और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की जानकारी देते और लोगों में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों को खत्म करके, संयम, त्याग और सदाचार का जीवन जीने के लिए प्रेरित करते. 


ज़रा सोचिये उस समय का समाज कितना सहिष्णु था कि नानक जब अरब देशों में अपनी बात रख रहे थे, तो भी लोग उन्हें सुन रहे थे और दक्षिण के राज्यों में भी - जबकि वे हर जगह मुल्ला- पंडित के पाखण्ड पर प्रहार करते थे!


यह सभी जानते है कि बाबा नानक विश्व की ऐसी विलक्ष्ण हस्ती थे, जिन्होंने दुनिया के धर्मों, निरंकार ईश्वर की खोज, जाति-पाति व अंध विश्वास के अंत के इरादे से 24 साल तक दो उपमहाद्वीपों के 60 से अधिक शहरों की लगभग 28 हजार किलोमीटर पैदल यात्रा की! 


उनकी इन यात्राओं को "उदासियां" कहा जाता है और उनकी ये उदासियां चार हिस्सों में (कुछ सिख विद्वान पांच उदासी भी कहते हैं) विभक्त हैं. उनकी चौथी उदासी मुल्तान, सिंध से मक्का-मदीना, फिर इराक-ईरान होते हुए अफगानिस्तान के रास्ते आज के करतारपुर साहिब तक रही.


इसी यात्रा में उनका अभिन्न साथी व रबाब से कई रागों की रचना करने वाले भाई मरदाना भी उनसे सदा के लिए जुदा हो गए थे!


सनद रहे भाई मरदाना कोई बीस साल बाबा के साथ परछाई की तरह रहे और उनकी तीन वाणियां भी श्री गुरूग्रथ साहेब में संकलित हैं.

 

बाबा नानक ने कभी कोई यात्रा वृतांत लिखा नहीं और अभी तक उनकी यात्रा और उनसे जुडी यादों पर कोई विधिवत काम हुआ नहीं. तीन साल पहले जब मैं इजिप्ट में था तो पता चला कि वहां के किले  "सीटादेल" में एक जगह ऐसी है जिसे कभी नानक का चबूतरा कहते थे,  वहां बाबा नानक रुके थे लेकिन आज उनकी कोई याद वहां है नहीं.


इसी तरह बगदाद के पास भी ऐसी निशानियाँ हैं.


उनकी पहली उदासी (1499-1509) में कोई 12 वर्षों का समय लगा था. इस में गुरु जी ने सय्यदपुर, तालुम्बा, कुरुक्षेत्र, पानीपत और दिल्ली की सैर सय्यदपुर, तालुम्बा, तलवंडी, पेहोवा, कुरुक्षेत्र, पानीपत, दिल्ली, हरिद्वार, गोरख मत्ता, बनारस, गया, बंगाल, कामरूप (आसाम), सिलहट, ढाका और जगन्नाथ पूरी आदि स्थानो पर गये. पुरी से भोपाल, चंदेरी, आगरा और गुड़गांव होते हुए वे पंजाब लौट आए.


पानीपत में उन्होंने अपनी शिक्षाओं के साथ शेख सराफ नाम के एक संत को प्रभावित किया. उनकी दिल्ली यात्रा की याद आज भी मजनू दा टीला नामक स्थान का गुरुद्वारा दिलाता है.


श्री गुरुनानक देव जी की दूसरी  उदासी (1510-1515) सिरसा, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, अजमेर, चित्तौड़, उज्जैन, अबू परबत, इंदौर, हैदराबाद, गोलकुंडा, बीदर, रामेश्वर और श्रीलंका की यात्रा की. उन्होंने राजस्थान में हिंदुओं और जैनियों के धर्म स्थानो पर भी गयें, अजमेर के निकट 'पुष्कर' (ब्रह्मा का मंदिर) के स्थान पर हिंदुओं को ईश्वर की महिमा और नाम का जाप करने के लिए प्रेरित किया. आबू पर्वत के सुंदर जैन मंदिर में, वह जैन संतों को मिले.


दक्षिण में, उन्होंने बीदर के स्थान पर उन्होंने तिल का प्रसाद कनफटे जोगियों के बीच बांट कर रिद्धि सिद्धि को चुनौती दी. वहाँ पर आज गुरुद्वारा तिल साहिब भी स्थापित किया गया है. वह रामेश्वरम के माध्यम से श्रीलंका पहुंचे. वहां का शासक शिवनाथ उनसे बहुत प्रभावित हुआ और अपने परिवार के साथ उनके सिख बन गए. अनुराधापुर में एक शिलालेख गुरु जी की श्रीलंका यात्रा को साबित करता है. कोचीन, गुजरात, द्वारका, सिंध, बहावलपुर और मुल्तान से गुरु पंजाब वापस आ गए. इस यात्रा में लगभग 5 साल का समय लगा.


तीसरी उदासी (1515-17), गुरु जी ने भारत के उत्तरी भागों, आज का हिमाचल प्रदेश, कशमीर आदि की यात्रा की. वे कांगड़ा, चंबा, मंडी नादौन, बिलासपुर, कश्मीर की घाटी, कैलाश पर्वत और मान सरोवर झील पर गए. कहा जाता है कि शायद वे तिब्बत भी गए. 


लद्दाख और जम्मू से होते हुए वह पंजाब लौट आने के प्रमाण तो मिलते हैं. इस दौरान उन्होंने अमरनाथ, पहलगांव, मटन, अनंतनाग, श्रीनगर और बारामूला की यात्रा की.


श्री गुरुनानक देव जी की चौथी यात्रा मुस्लिम जगत अर्थात अरब की तरफ थी. चौथी उदासी (1517-21) में वे मक्का, मदीना और बगदाद गए. इस यात्रा के दौरान, उन्हें हाजी की तरह कपड़े पहनाए गए थे. पाकपट्टन में उन्होंने शेख फरीद की समाधि के दर्शन किये और मुल्तान में उन्होंने सूफीमत के सेहरावर्दी वंश के सूफी संतों से मुलाकात की. 


वह एक जहाज द्वारा मक्का और मदीना की यात्रा पर गये.

उन्होंने मदीना और बगदाद की यात्रा की. बगदाद उन दिनों में मुस्लिमों के धार्मिक नेता खलीफा का मुख्य केंद्र था. यहा उनकी मुलाकात शेख बहलोल से हुई जिसको उन्होंने बहुत प्रभावित किया. शेख बहलोल ने उनकी याद में एक स्मारक भवन बनवाया. वहां अरबी में एक लेख लिखा है, जिसमें कहा गया है, 


"यहाँ एक हिंदू गुरु नानक ने फ़कीर बहलोल से बातचीत की. जब से गुरु ने ईरान छोड़ा है, तब से लेकर इसकी 60 की गिणती तक फकीर की आत्मा गुरु के वचन पर ऐसे बैठी रही, जैसे कोई भौंरा सुबह खिले होए मधु भरे गुलाब पर बैठता है.


ईरान, काबुल और पेशावर होते हुए गुरु साहिब सैयदपुर (ऐमनाबाद) आ आए.


श्री गुरु महाराज की पांचवी उदासी का काल छोटा है. (1521-22). इस बार वह बाहर ना जाकर पंजाब के पास कुछ इलाकों की यात्रा की. उन्होंने पाकपट्टन, दीपालपुर, सियालकोट, कसूर, लाहौर और झंग आदि स्थानो पर गये। वे श्री करतारपुर साहेब में गृहस्थ जीवन जी रहे थे. यहीं करतारपुर में, उन्होंने संगत और पंगत (एक पंक्ति में बैठे और अमीर और गरीब, उच्च और लोगों द्वारा लंगर खाने) की परंपरा स्थापित की. वह प्रतिदिन सुबह और शाम संगतो को धार्मिक प्रवचन देते थे. 


ज्योति ज्योत समाने से पहले उन्होंने अपने एक सच्चे भक्त भाई लहिना को उत्तराधिकारी नियुक्त किया और इस तरह गुरु परंपरा को जन्म दिया.


यहाँ नीचे इजिप्ट में गुरुनानक देव के चबूतरे और आज वह किला है , उसका फोटो है और साथ ही बगदाद में शेख बहलोल की मजार पर गुरद्वारे का भी.


आज जरूरत है कि गुरु महाराज की सभी उदासियों, उससे जुड़े स्थानों पर  चरणबद्ध शोध हो और उन स्थानों को चिन्हित किया जाए. 


यात्राएं किस तरह से इंसान को महान आध्यात्मिक शक्ति देती हैं, श्री गुरुनानक जी इसके दुनिया को मिसाल हैं.





Comments

Popular posts from this blog

Shri Guru Nanak

Shri Laozi - aka. Lao Tsu - meaning The Venerable Master